कपिल वस्तु के राजकुमार सिद्धार्थ जो आगे चलकर ‘गौतम बुध्द’ हुए और जिन्होंने ‘बौद्ध धर्म’ की स्थपना की, गृह त्यागकर निकले, तो बोध की खोज में काफी भटके | आखिर उनकी हिम्मत टूटने लगी | उनके मन में यह विचार बार-बार उठने लगा कि क्यों न वापस राजमहल चला जाये, और अंत में एक दिन वे कपिलवस्तु की ओर लौट ही पड़े | चलते-चलते राह में उन्हें प्यास लगी | सामने ही एक झील थी | वे उसके किनारे गये, तभी उनकी दृष्टी एक गिलहरी पर पड़ी| गिलहरी कोई दुर्लभ जीव नहीं, किन्तु उस गिलहरी की चेष्टाओं ने सिद्धार्थ का ध्यान विशेष रूप से आकर्षित किया | बात यह थी कि वह गिलहरी बार-बार पानी के पास जाती, अपनी पूंछ उसमें डुबोती और उसे निकालकर रेट पर झटक देती | सिद्धार्थ से न रहा गया | वे पूछ ही बैठे, नन्ही गिलहरी, यह क्या कर रही हो तुम? इस झील को सुखा रही हूँ, उसने उत्तर दिया | यह काम तो तुमसे कभी न हो पायेगा,’ सिद्धार्थ बोले, ‘भले ही तुम हजार बरस जियो और करोड़ों-अरबों बार अपनी पूंछ पानी में डुबाकर झटको, किन्तु झील को सुखाना तुम्हारे बस की बात नहीं |’ ‘तुम्हीं ऐसा मानो, मैं नहीं मानती | मैं तो यह जानती हूँ कि मन में जिस कार्य को करने का निश्चय किया, उस पर अटल रहने से वह हो ही जाता है | मैं अपना काम करती रहूंगी|’ और वह अपनी पूंछ डुबोने झील की ओर चल पड़ी | गिलहरी की बात सिद्धार्थ के हृदय में गड़ गयी| उन्हें अपने मन की निर्बलता महसूस हुई | वे वापस लौटे और फिर तप में निरत हो गये|