कष्टं च खलु मूर्खत्वं कष्ट च खलु यौवनम |
कष्टात्कष्टतरं चैव परगे हनिवासनम ||
आचार्य का कहना है कि मूर्खता कष्ट है, यौवन भी कष्ट है, किन्तु दूसरों के घर में रहना कष्टों का भी कष्ट है |
वस्तुतः मूर्खता अपने –आपमें एक कष्ट है और जवानी भी व्यक्ति को दुःखी करती है | इच्छाएँ पूरी न होने पर भी दुःख तथा कोई भला –बुरा काम हो जाये, तो भी दुःख | इन दुःखों से बड़ा दुःख है – पराये घर में रहने का दुःख | पर-घर में न तो व्यक्ति स्वाभिमान के साथ रह सकता है और न अपनी इच्छा से कोई काम कर सकता है | क्योंकि मूर्ख व्यक्ति को उचित –अनुचित का ज्ञान न होने के कारण हमेशा कष्ट उठाना पड़ता है | इसीलिए कहा गया है कि मूर्ख होना अपने-आपमें एक बड़ा अभिशाप है | कौन-सी बात उचित है और कौन-सी अनुचित है, यह जानना जीवन के लिए आवश्यक होता है | इसी भांति जवानी बुराईयों की जड़ है | कहा तो यहां तक गया है कि जवानी अन्धी और दीवानी होती है| जवानी में व्यक्ति काम के आवेग में विवेक खों बैठता है, उसे अपनी शक्ति पर गुमान हो जाता है | उसमें इतना अहं भर जाता है कि वह अपने सामने किसी दूसरे व्यक्ति को कुछ समझता ही नहीं | जवानी मनुष्य को विवेकहीन ही नहीं, निर्लज्ज भी बना देती है, जिसके कारण व्यक्ति को अनेक कष्ट उठाने पड़ते हैं | ऐसे में व्यक्ति को यदि दूसरे के घर में रहना पड़े तो उसे दूसरे की कृपा पर उसके घर की व्यवस्था का अनुसरण करते हुए रहना पड़ेगा | इस तरह वह अपनी स्वतंत्रता गंवा देगा| तभी तो कहा गया- ‘पराधीन सपनेहु सुख नाहीं’| इसीलिए इन पर विचार करना चाहिए|