छत्तीसगढ़ के पावन धरती पर विराजमान है माँ करेला भवानी | जो डोंगरगढ़ से 14 कि.मी.उत्तर दिशा जाने वाली मार्ग पर भण्डारपूर नामक गांव में स्थित है ,जो गांव खैरागढ़ तहसील व पोस्ट ढारा के अंतर्गत आता है | सड़क मार्ग से खैरागढ़ की दुरी 26 कि.मी. और राजनांदगांव से 30 कि.मी. की दुरी पर स्थित है |
भवानी डोंगरी के नाम से प्रसिद्ध इस पवित्र स्थल का नाम करेला इसलिए रखा गया है क्योंकि यहाँ की जमीन पर बीना बीज के करेले अपने आप ही निकल आते है | जिससे एक गांव छोटा करेला और दुसरा गांव बड़ा करेला से नाम से जाना जाता है | प्रकृति के सौन्दर्य से भरपूर इस पावन स्थान पर विराजमान है माँ करेला भवानी |
यहाँ नवरात्रि से समय मेले का आयोजन किया जाता है, इस अवसर पर यहाँ भक्तो की भीड़ उमड़ी रहती है | यहाँ नवरात्रि में 1000 ज्योति प्रज्वलित की जाती है तथा माता के दर्शन हेतु 1100 सीडियां चढ़नी पड़ती है |
माता का आगमन
मान्यता है कि लगभग ढाई सौ वर्ष पूर्व इस गाँव में नारायण सिंह कंवर नाम के एक गौटिया रहते थे, वह कुछ ग्रामीणों के साथ अपने घर के बाहर बैठे हुए थे। जेठ बैसाख का माह था तभी भरी दोपहरी में एक कन्या उनके पास आई, उसके चेहरे पर तेज था, श्वेत वस्त्र धारण किए हुए उस कन्या ने नारायण सिंह से अपने विश्राम के लिए जगह मांगी। नारायण सिंह ने विचार किया, हो सकता यह कन्या आस-पास के गांव से आई होगी, गर्मी की वजह से थक गई होगी, इस विचार से नारायण सिंह उसे अपने घर में रहने के लिए कहा किंतु वह कन्या जंगल की तरफ जाने लगी, यह देखकर नारायण सिंह तथा अन्य ग्रामीण चिंतित हो गए और उस कन्या के पीछे-पीछे वे सभी जाने लगे। कन्या जंगल से चलकर पहाड़ के उपर एक मकोईया की झाड़ी के नीचे जाकर बैठ गई। नारायण सिंह व अन्य लोगों ने जब उस कन्या से पूछा कि तुम कौन हो ? और इस जंगल में क्यों आई हो? तब उसने कहा कि मैं अब यही रहुंगी आप लोग मेरे रहने के लिए यहाँ एक मंदिर बनवा दीजिए इतना कहकर वह कन्या गायब हो गई। नारायण सिंह व गाँव वालों के लिए यह किसी चमत्कार से कम नही था। कन्या को मां भवानी का रूप मानकर उस स्थल पर जब मंदिर बनाने के लिए खुदाई की गई तभी वहां से एक पाषाण प्रतिमा निकली, जिसे मां भवानी के रूप में उसी झोपड़ीनुमा मंदिर में स्थापित किया गया।
धीरे-धीरे समय बीतने के उपरांत, जन स्मृति से यह स्थान विस्मृत हो गया। यह घटना आज से ढाई सौ वर्ष पूर्व घटित हुई थी। इतने वर्ष बीत जाने से पहाड़ पर बनी मां भवानी का मंदिर काल के थपेड़ों से तथा पेड़-पौधों व घासफुस से ढक चुका था। लोग भी जंगल व पहाडों में कम ही आना जाना करते थे। धीरे-धीरे यह मंदिर गाँव के लोगों की स्मृति से विस्मृत होता चला गया। पर कहते है न,“बच्चा मां को भूल सकता है पर मां अपने बच्चों को कभी नही भूलती।” आज से 25 वर्ष पूर्व कही किसी स्थान से एक गोरखनाथ पंथी बाबा उसी पहाड़ी पर आकर रहने लगे। पहाड़ के ऊपर ही कुँआ बना है जिसका उपयोग गोरखनाथ बाबा किया करते थे। बाबा पहाड़ पर ही ध्यानमग्न रहते थे। एक दिन जब गोरखनाथ बाबा ध्यानमग्न अवस्था में बैठे थे उसी समय एक घासफुस से ढके हुए पाषणखंड से तेज रोशनी निकली, गोरखनाथ बाबा ने देखा कि यह रोशनी कहाँ से आ रही है, तो वह समझ नही पा रहे थे कि ऐसा क्यों हो रहा था? तब उन्होनें उस स्थान को साफ किया और देखा की वह दिव्य प्रकाश मुर्तिआकार के समान एक पत्थर से आ रही थी ।
गोरखनाथ बाबा ने इसकी सूचना गाँव वालों को दी और आग्रह किया कि मां भवानी आपके गाँव में इतने वर्षो से विराजमान है आप लोग इनके लिए एक मंदिर का निर्माण करवाएं, गाँव के लोगों ने बाबा के उपदेश को मानते हुए एक मंदिर का निर्माण करवाया।वर्तमान में इस मंदिर को मां करेला भवानी के नाम से जाना जाता है। पहाड़ के नीचे जो गाँव बसा है उस गावं का नाम करेला है, जहाँ एक छोटा करेला ग्राम व एक बड़ा करेला, मार्ग के दोनों तरफ है,उसी के आधार पर मां भवानी का नाम करेला भवानी के नाम से प्रसिद्ध हो गया |