महाभारत का युद्ध समाप्त हुआ था और पांडव-पक्ष के लोग विजय की खुशी में सुख की निंद्रा में लीन थे | उनकी ऐसी धारणा थी कि कौरव-पक्ष का एक ही व्यक्ति शेष न रहने के कारण युद्ध समाप्त हो चुका है किन्तु यह उनकी भूल थी | कौरव-पक्ष का एक व्यक्ति जीवित था, जिसके हृदय में बदला लेने की भावना रह –रहकर उठ रही थी | वह था – गुरुद्रोनाचार्य का पुत्र अश्वत्थामा | उसने युद्ध के नियम ताक में रख दिये तथा एक हाथ में तलवार लिए पांडवों के शिविर में प्रवेश कर द्रोपदी के पाँच निरीह पुत्रों का वध कर संतोष की साँस ली |
अश्वत्थामा का यह कुकृत्य जब दूसरे दिन द्रोपदी को विदित हुआ, तो वह पुत्रों के शोक में विह्वल हो गयी | उसके हृदय में क्रोध की ज्वाला धधक उठी | वह पांडवों से कटू स्वर में बोली, ‘इस विश्वासघात का बदला लिया ही जाना चाहिए – वधिक को उसका फल मिलना ही चाहिए |’ यह सुन अर्जुन भी उत्तेजित हो गया | वह द्रोपदी से बोला, ‘पांचाली, शोक न करो | मैं उस नीच को अभी पकड़कर तुम्हारे सामने पेश करूँगा और इसका बदला लूँगा |’
भीम ने अर्जुन का साथ दिया और वे दोनों अश्वत्थामा को पकड़कर द्रोपदी के पास ले आये | अर्जुन बोला,‘यह रहा तुम्हारे निरीह पुत्रों की कपटपूर्वक हत्या करनेवाला नराधम |’और उसने अश्वत्थामा का शीश काटने के लिए तलवार उठायी ही थी कि द्रोपदी ने उसका हाथ थाम लिया, ‘स्वामी, आप इसे पकड़कर लाये, इतने में ही मैं संतुष्ट हूँ | इसे छोड़ दिया जाये, क्योंकि इसकी माता कृपी अभी भी जीवित हैं और मैं नहीं चाहती कि वे भी इसके वियोग में शोक करें | पुत्र शोक का मुझे पूर्ण अनुभव है | मैं नहीं चाहती कि एक माता को शोक के सागर में डुबाया जाये | अश्वत्थामा के सिर की मणि को निकालकर उसे मुक्त कर दिया गया |