निर्धनं पुरुषं वेश्यां प्रजा भग्नं नृपं त्यजेत |
खगाः वीतफलं वृक्षं भुक्त्वा चाभ्यागतो गृहम ||
आचार्य चाणक्य यहां प्राप्ति के बाद वस्तु के प्रति उपयोगिता ह्रास के नियम को लगाते हुए कहते हैं कि प्रकृति का नियम है कि पुरुष के निर्धन हो जाने पर वेश्या पुरुष को त्याग देती है | प्रजा शक्तिहीन राजा को और पक्षी फलहीन वृक्ष को त्याग देते हैं | इसी प्रकार भोजन कर लेने पर अतिथि घर छोड़ देता है |
अभिप्राय यह है कि वेश्या अपने पुराने ग्राहक को भी उसके गरीब पड़ जाने पर छोड़ देती है | राजा जब बुरे समय में शक्तिहीन हो जाता है, तो उसकी प्रजा भी उसका साथ छोड़ देती है | वृक्ष के फल समाप्त हो जाने पर पक्षी उस वृक्ष को त्याग देते हैं | घर में भोजन की इच्छा से आया हुआ कोई राहगीर भोजन कर लेने के बाद घर छोड़कर चला जाता है | अपना उल्लू सीधा होने तक मतलब रखते हैं | यही प्रकृति की उपयोगिता समाप्त हो जाने के बाद वस्तु के प्रति बदले दृष्टिकोण का संकेत है |
इस सन्दर्भ में यहां आचार्य चाणक्य ने कुछ उदाहरण से व्यक्ति के कर्तव्य-पालन पर बल दिया है | धन के कारण वेश्या जिसे प्रेमी कहती है, निर्धन होने पर उसे मुँह मोड़ लेती है | इसी प्रकार अपमानित राजा को प्रजा त्याग देती है और सूखे ठूंठ वृक्ष से पक्षी उड़ जाते हैं | इसी प्रकार अतिथि को चाहिए कि वह भोजन करने के उपरांत गृहस्ठ का साधुवाद करके घर को त्याग दे | वहाँ डेरा डालने की न सोचे, नहीं तो ऐसा हो सकता है कि संकोच का त्याग करके उसे जाने के लिए कहना पड़े | उसे यह समझना चाहिए कि सम्मान की रक्षा इसी में है कि वह भोजन करने के पश्चात् स्वयं जाने के लिए आज्ञा मांग ले | यही उचित भी है |