नदीतीरे च ये वृक्षा: परगेहेषु कामिनी |
मंत्रिहीनाश्च राजान: शीघ्रं नश्यन्त्यसंशयम ||
आचार्य चाणक्य नीति के वचनों के क्रम में यहां उपदेश कर रहे हैं कि तेज बहाववाली नदी के किनारे लगनेवाले वृक्ष, दूसरे के घर में रहनेवाली स्त्री, मंत्रियों से रहित राजा लोग- ये सभी शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं|
भाव यह है कि नदी की धारा अनिश्चित रहने के कारण उसके किनारे उगनेवाली वृक्ष शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं क्योंकि उनकी जमीन पेड़ो के बोझ को सह नहीं पाती और जड़े उखड़ने लगती हैं| उसी प्रकार दूसरे के घर गई स्त्री भी चरित्र की दृष्टि से सुरक्षित नहीं रह पाती उसका सतीत्व शंका के दायरे में आ जाता है | इस सन्दर्भ में किसी नीतिकार ने ही कहा है–
‘लेखनी पुस्तिका दारा: परहस्ते गता गताः |
आगता दैवयोगेन नष्टा भ्रष्टा च मर्दिता ||’
अर्थात् लेखनी (कलम), पुस्तक और स्त्री दूसरे के हाथ में चली गयीं तो गंवाई गयी ही समझें | यदि दैवयोग से वापस लौट भी आईं तो उनकी दशा नष्ट, भ्रष्ट और मर्दित रूप में ही होती है |
इसी प्रकार राजा का बल मंत्री होता है | मंत्री राजा को सन्मार्ग में प्रवृत्त एवं कुमार्ग से हटाता है| उसका न होना राजा के लिए घातक है | इसलिए राजा के पास मंत्री भी होना चाहिए |