सुलभ के प्रयत्न निष्फल होने पर कृष्ण ने दुर्योधन के समक्ष पांडवो को केवल पाँच गाँव देने का प्रस्ताव रखा, किन्तु दुर्योधन ने उसे ठुकराकर स्पष्ट रूप से कहा कि वह पाँच गाँव तो क्या, सुई के नोख के बराबर भी भूमि न देगा | कृष्ण निराश होकर कुंती के पास गये |
कृष्ण के सारा वृतांत सुनकर कुंती निरुत्साहित नहीं हुई | वीरप्रसूता जननी और तेजस्विनी क्षत्राणी की तरह वह कृष्ण से बोली, ‘हे कृष्ण, युधिष्ठिर से कहना कि वह क्षत्रिय-धर्म के अनुसार युद्ध करे | युद्ध अवश्यम्भावी है, अतः मृत्यु की परवाह न कर वह अत्याचारी की जड़ उखाड़ फेंके| राष्ट्र के आधार धर्म की रक्षार्थ जूझ मरने के लिए तुम अर्जुन और भीम से भी कहना और मेरा सन्देश देना कि क्षत्राणी जिस दिन के लिए पुत्र की कामना करती है, धर्म और कर्तव्य की वेदी पर आत्मा –त्याग करने का वह दिन अब आ पहुँचा है | आड़े समय में वीर पुरुष कमर कसकर विपत्तियों से भिड जाया करते हैं – शिथिल नहीं होते |
“कहना कि विदुला का पुत्र जब युद्ध में पराजित हो अपनी माता के पास मुँह छिपाने आया था, तब उसने उसे प्रोत्साहित करके फिर युद्ध करने भेजा था और युद्ध में उसके द्वारा वीरगति प्राप्त करने पर परम संतोष के साथ एक क्षत्रिय माता जा धर्म निभाया था | मैं भी उसी प्रकार अपने पुत्रों का अन्याय और अत्याचार के विरुद्ध लड़कर मरना अधिक पसंद करुँगी, न कि उनका कायरतापूर्वक जिवित रहना |’’
कर्मयोगी कृष्ण कुंती के इन उत्साहभरे वचनों से इतने प्रभावित हुए कि इसे ही उन्होंने गीता के कर्मयोग का आधार बनाया | ये वचन आज की माता के लिए भी निसंदेह उपादेय हैं |