स्वामी शंकराचार्य समुद्र किनारे बैठकर अपने शिष्य से वार्तालाप कर रहे थे कि एक शिष्य ने चाटूकारिता भरे शब्दों में कहा, “गुरुवर ! आपने इतना अधिक ज्ञान कैसे अर्जित किया, यही सोचकर मुझे आश्चर्य होता है | शायद और किसी के पास इतना अधिक ज्ञान का भंडार न होगा|”
“मेरे पास ज्ञान का भंडार है, यह तुझे किसने बताया? मुझे तो अपने ज्ञान में और वृद्धि करनी है |” शंकराचार्य बोले | फिर उन्होंने अपने हाथ की लकड़ी पानी में डुबायी और उसे उस शिष्य को दिखाते हुए बोले, अभी-अभी मैंने इस अथाह सागर में यह लकड़ी डुबायी, किन्तु उसने केवल एक बूंद ही ग्रहण की | बस यही बात ज्ञान के बारे में है | ज्ञानसागर कभी भी भरता नहीं, उसे कुछ न कुछ ग्रहण करना ही होता है | मुझसे भी बढ़कर विद्वान विद्यमान हैं| मुझे भी अभी बहुत कुछ ग्रहण करना है |