छत्तीसगढ़ का लोकपर्व छेरछेरा, किसानों अन्न और दान की परंपरा से जुड़ा हुआ है जो पौष-पूर्णिमा के दिन बड़े ही हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। पौष-पूर्णिमा से लगभग कुछ दिन पहले से ही, ग्रामीण और बच्चे छोटे-टोली बनाते हैं। जो लकड़ी के डंडे लेकर मांदर, ढोलक, झांझ, मंजीरा और अन्य पारंपरिक वाद्य-यंत्रों के साथ पारंपरिक लोकगीतों की धुन में घर-घर जाकर नृत्य करके दान मांगते हैं।
अन्नदान का यह महापर्व “नए फसल के कटने“ की खुशी का प्रतीक है |
“छेरछेरा माई कोठी के धान ला हेर–हेरा”
यही आवाज आज प्रदेश के ग्रामीण आंचलों में गूंजती है और दान के रुप में धान और नगद राशि बांटी जाती है। शहरों, दुकानों एवं कालोनियों में पैसे या टॉफी खाने की चीजें देते हैं।
मांगने वाला ब्राह्मण व देने वाली देवी
छेरछेरा के दिन मांगने वाला याचक यानी ब्राह्मण के रूप में होता है तो देने वाली महिलाएं शाकंभरी देवी के रूप में होती है। छेरी, छै+अरी से मिलकर बना है। मनुष्य के छह बैरी काम, क्रोध, मोह, लोभ, तृष्णा और अहंकार है। बच्चे जब कहते हैं कि छेरिक छेरा छेर मरकनीन छेर छेरा तो इसका अर्थ है कि हे मकरनीन (देवी) हम आपके द्वार में आए हैं। माई कोठी के धान को देकर हमारे दुख व दरिद्रता को दूर कीजिए। यही कारण है कि महिलाएं धान, कोदो के साथ सब्जी व फल दान कर याचक को विदा करते हैं। कोई भी महिला इस दिन किसी भी याचक को खाली हाथ नहीं जाने देती। वे क्षमता अनुसार धान-धन्न जरूर दान करते हैं।
छेरछेरा मनाने के पीछे एक कारण यह भी
जनश्रुति है कि एक समय धरती पर घोर अकाल पड़ी। अन्न, फल, फूल व औषधि नहीं उपज पाई। इससे मनुष्य के साथ जीव-जंतु भी हलाकान हो गए। सभी ओर त्राहि-त्राहि मच गई। ऋषि-मुनि व आमजन भूख से थर्रा गए। तब आदि देवी शक्ति शाकंभरी की पुकार की गई। शाकंभरी देवी प्रकट हुई और अन्न, फल, फूल व औषधि का भंडार दे गई। इससे ऋषि-मुनि समेत आमजनों की भूख व दर्द दूर हो गया। इसी की याद में छेरछेरा मनाए जाने की बात कही जाती है। पौष में किसानों की कोठी धान से परिपूर्ण होता है। खेतों में सरसों, चना, गेहूं की फसल लहलहा रही होती है।