दरवाजे पर एक भिखारिन खड़ी थी | दरवाजा खोलकर एक बारह वर्ष का बालक बाहर आया और बोला- “क्या बात है माई ?”
भिखारिन ने उत्तर दिया- “बेटा दो दिन से भूखी हूं |”
भूख तो उसे भी लगी थी, पर भिखारिन की भूख सुनकर वह विचलित हो गया | बालक ने उसे अंदर बुलाया | उसे आदरपूर्वक बिठाया | अंदर मां ने जो थाली उसके लिए परोसी थी, वह उसे उठा लाया | उसने उस थाली को भिखारिन के सामने रख दिया |
मां एक-एक कर रोटी देती जाती थी और वह भिखारिन की थाली में रखता जाता था | मां समझती थी कि रोटी नानक ही खा रहा है | जब भिखारिन का पेट भर गया तो वह नानक को आशीष देकर चली गई | नानक उस थाली को उठाकर रसोई में ले गया |
थाली लौटाते हुए वह मां से बोला- “मां, बस कर, मेरा पेट भर गया है | आज खाना बड़ा स्वादिष्ट बना था | मुझे ऐसा लग रहा था, मानो मैं दो दिन से भूखा था |”
मां ने मुस्कराकर कहा- “और ले लो बेटा, भगवान् ने बहुत दिया है हमें |”
बालक ने भगवान् का नाम सुना तो उसे संतोष हुआ | वह बोला- “भगवान् सबको देता है?”
मां ने कहा- “हाँ बेटा, उसके राज्य में कोई जीव भूखा नहीं रहता |”
नानक ने मां को भिखारिन के दो दिन भूखे रहने की बात नहीं बताई |
आज उसने कुछ नहीं खाया | मां से आज्ञा लेकर वह अपने पिता के खेतों और बागों में घूमने निकल पड़ा | वह मन-ही-मन सोचता जा रहा था- ‘ये सब खेत व बाग मेरे पिता को भगवान् ने दिए हैं | ये सब हैं तो भगवान् के ही |
इसलिए इन खेतों का अन्न भी भगवान् का है |
नानक ने देखा कुछ चिड़िया खेत में बिखरे दाने खा रही हैं |
उसने उन्हें मारा नहीं | वह मुस्करा दिया | उसके मुंह से निकल पड़ा –
‘रामजी की चिड़िया, रामजी का खेत,
खाओ री चिड़िया, भर-भर पेट |’
यह गीत गुनगुनाता हुआ नानक शाम को घर लौटा | रात को उसे बहुत कम नींद आई | वह चिड़ियों और भिखारिन के बारे में सोचता रहा | अब तो वह भिखारियों, बीमारों और जीवों की खोज करता और उनके दुःखों को दूर करने के लिए कार्य करता | उसका मन और कहीं न लगता | वह जहाँ भी जाता, वहीं लोगों के दुखों को देखता और उन्हें दूर करने की चेष्टा भी करता | कभी-कभी तो उसकी आंखों में आंसू भी आ जाते | वह रो पड़ता|
एक दिन नानक के पिता ने नानक को चालीस रुपए दिए और नानक से कहा- “नानक, बेटा अब तुम बड़े हो गए हो | तुम्हें कुछ काम-धंधा करना चाहिए | ये लो चालीस रुपए और बाजार में जाकर खरा सौदा करो |”
नानक चालीस रुपए लेकर चल दिया | बाजार पहुंचने से पहले ही नानक को साधुओं की एक टोली मिली, जो दो दिनों से भूखी थी | नानक ने चालीस रुपए का भोजन उस टोली को खिला दिया | नानक खुश होकर अपने घर लौट आया | पिताजी को पूरी घटना सुनाकर नानक ने पिता से कहा- “पिताजी, आज मैंने खरा सौदा किया है |”
हृदय में दया का भाव रखने वाले बालक के लिए इससे बड़ा खरा सौदा और क्या हो सकता था | नानक का मन एक संत का मन था | उसका मन व्यापारी का मन नहीं था | दया रखने वाले बालक ही बड़े होकर महान बनते हैं|