अश्वदत्त दस वर्ष का एक बालक था| वह राक्षस नाम के एक घोड़े का दोस्त था| राक्षस को खरहरा करने का काम बालक अश्वदत्त के पीता वेणु का था| राक्षस समुद्रगुप्त का मनपसंद घोड़ा था | राक्षस की पीठ पर बैठकर समुद्रगुप्त ने अनेक प्रान्तों को जीता था| अस्तबल में राक्षस को अच्छी तरह रखा जाता था| जब वेणु उसे खरहरा करता था तो अश्वदत्त उसे चरी खिलाता |
राक्षस, वेणु और अश्वदत्त को पहचानता था| वेणु के बिना तो राक्षस हिलता भी नहीं था | वह जितना फुर्तीला और बहादुर घोड़ा था, उतना ही जिद्दी भी था | समुद्रगुप्त युद्ध के लिए तैयार थे, पर राक्षस तैयार न था| वेणु को बुखार था | वेणु युद्ध में नहीं जा सकता था|
वेणु ने सम्राट से कहा- “महाराज, मेरा बेटा अश्वदत्त भी राक्षस को उतना ही प्यार करता है, जितना मैं | राक्षस अश्वदत्त का भी कहना मानता है| उसकी आयु दस वर्ष है, फिर भी वह आपकी सेवा कर सकता है |”
अश्वदत्त की इच्छा भी युद्ध में जाने की थी| वह भयानक जंगल से प्यार करता था| जंगल में वह शेर देखना चाहता था| राजा ने अश्वदत्त को ही ले जाने का फैसला किया| अश्वदत्त बहुत प्रसन्न हुआ| वह अपने माता-पिता से आज्ञा लेकर चल पड़ा |
अश्वदत्त का तम्बू सम्राट के तम्बू के पास ही लगाया गया था| वह अधिकतर राजा के साथ ही रहता | राक्षस को खरहरा करता और उसे राजा के लिए सदा तैयार रखता | जंगल में उसने खरगोश, तीतर, बटेर, मोर को देखा| उसका मन उनके साथ रहने को करता| वह प्रतिदिन तीर चलाने का अभ्यास किया करता| उसका निशाना अचूक हो गया था| उसने कई खरगोशों को मार गिराया था| झाड़ी में छीपे भीलों पर भी वह तीर चला देता था| कुछ ही दिनों में बालक अश्वदत्त सैनिकों की आँखों का तारा बन गया था |
प्रात:काल का समय था| सम्राट पूजा करने के लिए नदी किनारे जा रहे थे| अश्वदत्त अपना तीर-कमान लिए अभ्यास कर रहा था| एकाएक अश्वदत्त की नजर एक चीते पर पड़ी| चीता खूंखार नजरों से लगातार महाराज की ओर घूरे जा रहा था| अश्वदत्त को समझने में देर न लगी | महाराज के अंगरक्षक भाले लिए उनके पीछे-पीछे चल रहे थे| वे चालाक चीते को नहीं देख पाए | अश्वदत्त ने अपनी कमान संभाली | उस पर उसने विष लगा तीर साधा| अब अश्वदत्त झाड़ी में से उसे स्पष्ट देख पा रहा था | महाराज चीते से केवल दस कदम दूर थे| चीता बिल्ली की तरह चार कदम आगे बढ़ा | चीते ने गुर्राकर महाराज पर छलांग लगा दी| बस यही समय था कि अश्वदत्त की कमान से तेजी से एक तीर छूटा और सीधा चीते की गर्दन में घुस गया| घायल चीता महाराज के पैरों पर जा गिरा | इससे पहले कि चीता उछलकर फिर महाराज पर हमला, करता, एक के बाद एक और कई तीर उसके पेट में जा घुसे| चीता वहीं ढेर हो गया | पूरी छावनी में शोर मच गया | सैकड़ों सैनिक दौड़ पड़े| जब महाराज को पता चला कि तीर अश्वदत्त की कमान से चले हैं तो महाराज ने अश्वदत्त को गोद में उठा लिया| अश्वदत्त अपने परिश्रम और अभ्यास के कारण बचपन से ही महाराज का अंगरक्षक बन गया | महाराज उसे अपने बेटे के सामने पालने लगे |