उन्नीसवीं सदी में धार्मिक क्षेत्र में श्री रामकृष्ण परमहंस सबसे ऊंचे स्थान पर विराजमान थे। वह एक रहस्यमयी और महान योगी पुरुष थे जिन्होंने काफी सरल शब्दों में अध्यात्मिक बातों को सामान्य लोगों के सामने रखा। जिस समय हिन्दू धर्म बड़े संकट में फंसा हुआ था उस समय श्री रामकृष्ण परमहंस ने हिन्दू धर्म में नयी उम्मीद जगाई। श्रीरामकृष्ण परमहंस के पास में अद्भुत शक्तियां थीं। कहा जाता है कि श्री रामकृष्ण परमहंस भगवान विष्णु के अवतार थे। उन्होंने सभी धर्मों को एक बताते हुए उनकी एकता पर जोर दिया था। उनका मानना था सभी धर्मों का आधार प्रेम हैं। उन्हें बचपन से ही विश्वास था कि ईश्वर के दर्शन हो सकते हैं। ईश्वर की प्राप्ति के लिए उन्होंने कठोर साधना की। अपनी साधना से रामकृष्ण इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि संसार के सभी धर्म सच्चे हैं और उनमें कोई भिन्नता नहीं है। वे ईश्वर तक पहुंचने के भिन्न-भिन्न साधन मात्र हैं।
अतः यज्ञोपवीत के पश्चात घर वालों के लगातार विरोध के बावजूद इन्होंने ब्राह्मण परिवार में प्रचलित प्रथा का उल्लंघन कर अपना वचन पूरा किया और अपनी पहली भिक्षा उस लुहारिन से प्राप्त की। यह घटना सामान्य नहीं थी। सत्य के प्रति प्रेम तथा इतनी कम उम्र में सामाजिक प्रथा के इस प्रकार उपर उठ जाना रामकृष्ण की आध्यात्मिक क्षमता और दूरदर्शिता को ही प्रकट करता है। रामकृष्ण का मन पढ़ाई में न लगता देख इनके बड़े भाई इन्हें अपने साथ कलकत्ता ले आये और अपने पास दक्षिणेश्वर में रख लिया। यहां का शांत एवं सुरम्य वातावरण रामकृष्ण को अपने अनुकूल लगा। 1858 में इनका विवाह शारदा देवी नामक पांच वर्षीय कन्या के साथ सम्पन्न हुआ। जब शारदा देवी ने अपने अठारहवें वर्ष में पदार्पण किया तब श्री रामकृष्ण ने दक्षिणेश्वर के अपने कमरे में उनकी षोड़शी देवी के रूप में आराधना की। यहीं शारदा देवी रामकृष्ण संघ में माताजी के नाम से परिचित हैं।
रामकृष्ण के अन्तिम गुरु तोतापुरी थे जो सिद्ध तांत्रिक तथा हठ योगी थे। उन्होने रामकृष्ण को दीक्षा दी। रामकृष्ण को दीक्षा दी गई परमशिव के निराकार रुप के साथ पूर्ण संयोग की। पर आजीवन तो उन्होंने मां काली की आराधना की थी। वे जब भी ध्यान करते तो मां काली उनके ध्यान में आ जातीं और वे भावविभोर हो जाते। जिससे निराकार का ध्यान उनसे नहीं हो पाता था। तोतापुरी ध्यान सिद्ध योगी थे। उनको अनुभव हुआ कि रामकृष्ण के ध्यान में मां काली प्रतिष्ठित हैं। उन्होंने शक्ति सम्पात के द्वारा रामकृष्ण को निराकार ध्यान में प्रतिष्ठित करने के लिये बगल में पड़े एक शीशे के टुकड़े को उठाया और उसका रामकृष्ण के आज्ञाचक्र पर आघात किया जिससे रामकृष्ण को अनुभव हुआ कि उनके ध्यान की मां काली चूर्ण-विचूर्ण हो गई हैं और वे निराकार परमशिव में पूरी तरह समाहित हो चुके हैं। वे समाधिस्थ हो गये। ये उनकी पहली समाधि थी जो तीन दिन चली। तोतापुरी ने रामकृष्ण की समाधि टूटने पर कहा। मैं पिछले 40 वर्ष से समाधि पर बैठा हूं पर इतनी लम्बी समाधि मुझे कभी नहीं लगी।
रामकृष्ण परमहंस के पास जो कोई भी जाता वह उनकी सरलता, निश्चलता, भोलेपन और त्याग से इतना अभिभूत हो जाता कि अपना सारा पांडित्य भूलकर उनके पैरों पर गिर पड़ता था। गहन से गहन दार्शनिक सवालों के जवाब भी वे अपनी सरल भाषा में इस तरह देते कि सुनने वाला तत्काल ही उनका मुरीद हो जाता। इसलिए दुनियाभर की तमाम आधुनिक विद्या, विज्ञान और दर्शनशास्त्र पढ़े महान लोग भी जब दक्षिणेश्वर के इस निरक्षर परमहंस के पास आते तो अपनी सारी विद्वता भूलकर उसे अपना गुरु मान लेते थे।
इनके प्रमुख शिष्यों में स्वामी विवेकानन्द, दुर्गाचरण नाग, स्वामी अद्भुतानंद, स्वामी ब्रह्मानंदन, स्वामी अद्यतानन्द, स्वामी शिवानन्द, स्वामी प्रेमानन्द, स्वामी योगानन्द थे। 15 अगस्त 1886 को अपने भक्तों और स्नेहितों को दुख के सागर में डुबाकर वे इस लोक में महाप्रयाण कर गये। रामकृष्ण परमहंस महान योगी, उच्चकोटि के साधक व विचारक थे। सेवा पथ को ईश्वरीय, प्रशस्त मानकर अनेकता में एकता का दर्शन करते थे। सेवा से समाज की सुरक्षा चाहते थे। रामकृष्ण का सारा जीवन अध्यात्म-साधना के प्रयोगों में बीता। वे लगातार कई घंटों तक समाधि में लीन हो जाते थे। चौबीस घंटे में बीस-बीस घंटों तक वे मिलनेवाले लोगों का दुख-दर्द सुनते और उसका समाधान भी बताते।