एक बार स्वामी रामदासजी भिक्षा मांगते हुए एक घर के सामने खड़े हुए और उन्होंने आवाज लगायी- “रघुवीर समर्थ !” घर की स्त्री बाहर आयी | उसने उनकी झोली में भिक्षा डाली और कहा, “महात्माजी, कोई उपदेश दीजिए !”
स्वामीजी बोले, “आज नहीं, कल दूंगा |”
दूसरे दिन स्वामीजी ने पुन: उस घर के सामने आवाज लगायी – “रघुवीर समर्थ !”
उस घर की स्त्री ने उस दिन खीर बनायी थी, जिसमें बादाम-पिस्ते भी डाले थे | वह खीर का कटोरा लेकर बाहर आयी | स्वामीजी ने अपना कमंडल आगे कर दिया | वह स्त्री जब खीर डालने लगी, तो उसने देखा कि कमंडल में गोबर और कूड़ा भरा पड़ा है | उसके हाथ ठिठक गये | बोली, “महाराज, यह कमंडल तो गन्दा है |”
स्वामीजी बोले, “हाँ, गन्दा तो है | किन्तु खीर इसमें डाल दो |”
स्त्री बोली, “नहीं महाराज, तब तो खीर खराब हो जाएगी | दीजिए यह कमंडल, मैं इसे शुद्ध कर लाती हूँ |”
स्वामीजी बोले, “मतलब जब यह कमंडल साफ हो जाएगा, तभी खीर डालोगी न ?” स्त्री ने उत्तर दिया, “जी हाँ!”
स्वामीजी बोले, “मेरा भी यही उपदेश है | मन में जब तक चिंताओं का कूड़ा-करकट और बूरे संस्कारों का गोबर भरा है, तब तक उपदेशामृत का कोई लाभ न होगा | यदि उपदेशामृत पान करना है, तो प्रथम अपने मन को शुद्ध करना चाहिए, कुसंस्कारों का त्याग करना चाहिए, तभी सच्चे सुख और आनंद की प्राप्ति होगी |