रामचरितमानस का अरण्यकांड भगवान् श्रीराम के साथ माता जानकी और लक्ष्मण जी के महान् ऋषियों और मुनियों से मिलने का साक्षी है। इसी कांड में माता सीता के हरण के उपरांत माता शबरी से श्रीराम के मिलन का अत्यंत भावुक, मार्मिक और भक्ति की पराकाष्ठा का चित्रण है,जो जनमानस को आत्म विभोर कर देता है। वस्तुतः एक भील राजकुमारी सबरी (श्रमणा) बाल्यावस्था से ही सात्विक और वैरागी प्रकृति की थीं इसलिए विवाह तय हो जाने के कारण उन्होंने गृह त्याग दिया तथा महर्षि मतंग की शिष्या बन गईं। किशोरवय बालिका सबरी (शबरी) को आश्रम सौंपकर महर्षि मतंग जब देवलोक जाने लगे, तब सबरी (शबरी) भी साथ जाने का हठ करने लगीं।
महर्षि सबरी को रोते देख व्याकुल हो उठे! सबरी को समझाया “पुत्री इस आश्रम में भगवान आएंगे यहां प्रतीक्षा करो!”
महर्षि बालिका सबरी के आगे घुटनों के बल बैठ गए, सबरी को नमन किया। आसपास उपस्थित सभी ऋषिगण असमंजस में डूब गए, ये उलट कैसे हुआ! गुरु यहां शिष्य को नमन करे! ये कैसे हुआ?
अभी दशरथजी का लग्न भी नहीं हुआ! उनका कौशल्या से विवाह होगा! फिर भगवान की लम्बी प्रतीक्षा होगी फिर दशरथजी का विवाह सुमित्रा से होगा ! फिर प्रतीक्षा! फिर उनका विवाह कैकई(कैकेयी) से होगा फिर प्रतीक्षा! फिर वो जन्म लेंगे! फिर उनका विवाह माता जानकी से होगा! फिर उन्हें 14 वर्ष वनवास होगा और फिर वनवास के आखिरी वर्ष माता जानकी का हरण होगा, तब उनकी खोज में वे यहां आएंगे! तुम उन्हें कहना “आप सुग्रीव से मित्रता कीजिये उसे आततायी बाली के संताप से मुक्त कीजिये आपका अभीष्ट सिद्ध होगा! और आप रावण पर अवश्य विजय प्राप्त करेंगे!”
वह फिर अधीर होकर पूछने लगी “इतनी लम्बी प्रतीक्षा कैसे पूरी होगी गुरुदेव!”
महर्षि मतंग बोले ” वे ईश्वर हैं अवश्य ही आएंगे! यह भावी निश्चित हैं”
लेकिन यदि उनकी इच्छा हुई तो काल दर्शन के इस विज्ञान को परे रखकर वे कभी भी आ सकते हैं! लेकिन आएंगे अवश्य”
जन्म मरण से परे उन्हें जब जरूरत हुई तो प्रह्लाद के लिए खम्बे से भी निकल आये थे! इसलिए प्रतीक्षा करना ! वे कभी भी आ सकते हैं!
तीनों काल तुम्हारे गुरु के रूप में मुझे याद रखेंगे! शायद यही मेरे तप का फल हैं ।
उन्हें हर दिन प्रभु श्रीराम की प्रतीक्षा रहती थी । वह जानती थीं समय का चक्र उनकी उंगली पर नाचता है वे कभी भी आ सकते हैं।
लेकिन प्रतीक्षा उसी अबोध चित्त से करती रहीं और एक दिन उनके बिछाए फूलों पर प्रभु श्रीराम के चरण पड़े!
सबरी की प्रतीक्षा का फल ये रहा कि जिन राम को कभी तीनों माताओं ने जूठा नहीं खिलाया उन्हीं राम ने सबरी का जूठा खाया!यह सामाजिक समरसता का सर्वश्रेष्ठ दृष्टांत है और मार्गदर्शी है। तदुपरांत माता शबरी को भगवान् श्री राम ने नवधा भक्ति का दिव्य ज्ञान दिया। रामचरितमानस के अरण्यकांड से उपर्युक्त नवधा भक्ति का वर्णन उद्धृत है – शबरी पर कृपा, नवधा भक्ति उपदेश और पम्पासर की ओर प्रस्थान
धर्म ग्रंथों में नवधा भक्ति का प्रकटीकरण का यह स्वरूप अवलोकनीय है – श्रवण (परीक्षित), कीर्तन (शुकदेव), स्मरण (प्रह्लाद), पादसेवन (लक्ष्मी), अर्चन (पृथुराजा), वंदन (अक्रूर), दास्य (हनुमान), सख्य (अर्जुन) और आत्मनिवेदन (बलि राजा) – इन्हें नवधा भक्ति कहते हैं।
कीर्तन: ईश्वर के गुण, चरित्र, नाम, पराक्रम आदि का आनंद एवं उत्साह के साथ कीर्तन करना।
अर्चन: मन, वचन और कर्म द्वारा पवित्र सामग्री से ईश्वर के चरणों का पूजन करना।
नवधा भक्ति के आलोक में माता सबरी से श्रीराम बोले, ‘‘हे भामिनि! मैं तो केवल भक्ति का ही संबंध मानता हूं। जाति, पाति, कुल, धर्म, बड़ाई, धन-बल, कुटुम्ब, गुण एवं चतुराई इन सबके होने पर भी भक्ति रहित मनुष्य जलहीन बादल-सा लगता है। उन्होंने शबरी को नवधा भक्ति का उपदेश किया। कहा- मेरी भक्ति नौ प्रकार की है -1.संतों की संगति अर्थात सत्संग, 2. श्रीराम कथा में प्रेम, 3. गुरुजनों की सेवा, 4. निष्कपट भाव से हरि का गुणगान, 5. पूर्ण विश्वास से श्रीराम नाम जप, 6. इंद्रिय दमन तथा कर्मों से वैराग्य, 7. सबको श्रीराममय जानना, 8. यथालाभ में संतुष्टि तथा 9. छल रहित सरल स्वभाव से हृदय में प्रभु का विश्वास। इनमें से किसी एक प्रकार की भक्ति वाला मुझे प्रिय होता है, फिर तुझमें तो सभी प्रकार की भक्ति दृढ़ है। अतएवं जो गति योगियों को भी दुर्लभ है, वह आज तेरे लिए सुलभ हो गई है। उसी के फलस्वरूप तुम्हें मेरे दर्शन हुए, जिससे तुम सहज स्वरूप को प्राप्त करोगी।’’
लेखक – डॉ. आनंद सिंह राणा