आर्य समाज के संस्थापक के रूप में वंदनीय महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती का जन्म गुजरात के टंकारा में 12 फरवरी 1824 को हुआ था लेकिन हिन्दू पंचांग के अनुसार उनकी जयंती प्रतिवर्ष फाल्गुन महीने के कृष्ण पक्ष की दशमी को मनाई जाती है, जो इस वर्ष 05 मार्च को है। ऐसे में हिन्दू कैलेंडर के अनुसार स्वामी दयानंद सरस्वती जयंती 05 मार्च को मनाई जाएगी। स्वामी दयानंद ऐसे देशभक्त, समाज सुधारक, मार्गदशक और आधुनिक भारत के महान चिंतक हैं, जिन्होंने न केवल ब्रिटिश सत्ता से जमकर लोहा लिया बल्कि अपने कार्यों से समाज को नई दिशा और ऊर्जा भी प्रदान की। 1857 की क्रांति में उनका अमूल्य योगदान था। स्वामी दयानंद का बचपन बहुत अच्छा बीता लेकिन उनके जीवन में घटी एक घटना ने उन्हें इस कदर प्रभावित किया कि वे 21 वर्ष की आयु में ही अपना घर-वार छोड़कर आत्मिक एवं धार्मिक सत्य की तलाश में निकल पड़े और संन्यासी बन गए। जीवन में ज्ञान की तलाश में वे स्वामी विरजानंद से मिले, जिन्हें अपना गुरु मानकर उन्होंने मथुरा में वैदिक तथा योग शास्त्रों के साथ ज्ञान की प्राप्ति की। 1845 से 1869 तक कुल 25 वर्षों की अपनी वैराग्य यात्रा में उन्होंने कई प्रकार के दैविक क्रियाकलापों के बीच योग का भी गहन अभ्यास किया।
स्वामी दयानंद ने आर्य समाज की स्थापना मुम्बई के गिरगांव में गुड़ी पड़वा के दिन 10 अप्रैल 1875 को की थी, जिसकी स्थापना का मुख्य उद्देश्य शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति के साथ समूचे विश्व को एक साथ जोड़ना था। आर्य समाज के द्वारा उन्होंने दस मूल्य सिद्धांतों पर चलने की सलाह दी। मूर्ति पूजा के अलावा वे जाति विवाह, महिलाओं के प्रति असमानता की भावना, मांस सेवन, पशुओं की बलि देने, मंदिरों में चढ़ावा देने इत्यादि के सख्त खिलाफ थे और इसके लिए उन्होंने लोगों में जागरुकता पैदा करने के अथक प्रयास किए। अपने 59 वर्ष के जीवनकाल में महर्षि दयानंद ने न सिर्फ देश में व्याप्त बुराइयों के खिलाफ लोगों को जागृत किया बल्कि अपने वैदिक ज्ञान से नवीन प्रकाश को भी देशभर में फैलाया। हालांकि कई लोगों ने उनका जमकर विरोध भी किया लेकिन स्वामी दयानंद सरस्वती के तार्किक ज्ञान के समक्ष बड़े-बड़े विद्वानों और पंडितों को भी नतमस्तक होना पड़ा। वे अपने जीवन को पुनर्जन्म, ब्रह्मचर्य, संन्यास तथा कर्म सिद्धांत के चार स्तंभों पर खड़ा मानते थे।
स्वामी दयानंद हिन्दी भाषा के प्रबल समर्थक थे और उनका मत था कि कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक पूरे देश में एक ही भाषा ‘हिन्दी’ बोली जानी चाहिए। मानव शरीर को नश्वर बताते हुए वह कहते थे कि हमें इस शरीर के जरिये केवल एक अवसर मिला है, स्वयं को साबित करने का कि ‘मनुष्यता’ और ‘आत्मविवेक’ क्या है। वे कहा करते थे कि शक्ति किसी अलौकिकता या चमत्कारिता के प्रदर्शन के लिए नहीं होती। सभी धर्मों और उनके अनुयायियों को वे एक ही ध्वज तले बैठा देखना चाहते थे। दरअसल उनका मानना था कि आपसी लड़ाई का फायदा सदैव तीसरा उठाता हैं, इसलिए इस भेद को दूर करना आवश्यक है। कर्म करने को लेकर स्वामी जी तर्क देते थे कि काम करने से पहले सोचना बुद्धिमानी, काम करते हुए सोचना सतर्कता और काम करने के बाद सोचना मूर्खता है। वह कहा करते थे कि दुनिया को अपना सर्वश्रेष्ठ दीजिए और तब आपके पास सर्वश्रेष्ठ लौटकर आएगा। उनका कहना था कि अज्ञानी होना गलत नहीं है लेकिन अज्ञानी बने रहना गलत है।
लेखक :- योगेश कुमार गोयल