एक बार गोवा के संत कवि सोहिरोबा ग्वालियर के महाराजा महादजी शिंदे के दरबार में पहुँचे | दरबार में गोवा के केटी नामक ग्राम के प्रसिद्ध वीर सेनापति जिवाजी बल्लाल का बड़ा नाम था | अपने प्रदेश के संत पुरुष के आगमन से जिवाजी को बड़ा हर्ष हुआ | जिवाजी ने महाराजा की कविताएँ उन्हें दिखाते हुए कहा कि यदि उन कविताओं की थोड़ी सी भी प्रशंसा करें, तो मठों की स्थापना के लिए विपुल धन प्राप्त हो सकता है, किन्तु महाराजा की कवितओं का अवलोकन करने के पश्चात दरबार में सोहिरोबा ने सहज भाव से कह दिया, ‘’हाँ, वैसे तो कविताएँ ठीक हैं, पर ‘प्रसाद’ गुण से युक्त नहीं हैं |’’ भरे दरबार में इस प्रकार की स्पष्टयुक्ति से महाराजा को बड़ा ही अपमान अनुभव हुआ | क्रोध से उनकी भृकुटियाँ तन गयीं | सारे दरबार में सन्नाटा छा गया, किन्तु सोहिरोबा पूर्ण शांति के साथ मंदस्मित-युक्त मुद्रा में निर्विकार बैठे रहे | महाराजा कुछ बोले इसके पूर्व ही उस फकीर बादशाह ने सधुक्कड़ी हिंदी में निम्न पन्क्तियाँ कहीं –
अवधूत नहीं गरज तेरी | हम बेपर्वा फकीरी ||
तुम हो राजा मैं हौं जोगी | पृथक पंथ का न्यारा ||
सोना-चांदी हमकूँ नहि चाहिए | अलख भुवन का वासी ||
दौलत देख दीवानी मेरी ………..||
और सोहिरोबा फौरन दरबार से बाहर आ गये |