यहां आचार्य चाणक्य परिस्थितिवश आचरण में आनेवाले परिवर्तन के स्तर और स्थिति को इंगित करते हुए धीरे गंभीर व्यक्ति की श्रेष्ठता प्रतिपादित करते हुए कहते हैं कि सागर की तुलना में भी धीरे-गंभीर पुरुष को श्रेष्ठतर माना जाना चाहिए क्योंकि जिस सागर को लोग इतना गंभीर समझते हैं, प्रलय आने पर वह भी अपनी मर्यादा भूल जाता है और किनारों को तोड़कर जल-थल एक कर देता है, परन्तु साधु अथवा श्रेष्ठ व्यक्ति संकटों का पहाड़ टूटने पर भी श्रेष्ठ मर्यादाओं का उल्लंघन नहीं करता |