सुमेरू और कुबेरू दो दोस्त थे। दोनों जंगल में रहते थे, वे दोनों शहद का छत्ता तोड़कर उसमें से शहद निकालकर बाजार में बेचते और रूखा-सूखा जैसा भी भोजन मिलता, खा लेते। बरसात के दिनों में उन्हें बड़ी कठिनाई होती थी। इन दिनों में न वे जंगल में शहद लेने जा सकते थे और न ही लकड़ियां, क्योंकि पेड़ गीले होकर फिसलाऊ हो जाते थे और जंगली रास्ते कीचड़ से भर जाते थे।
एक दिन लगातार बरसात से परेशान होकर सुमेरू ने
कहा- “कुबेरू, अब क्या करें?” कुबेरू बोला- “मेरी तो कुछ समझ में नहीं आता। कहां जाएं?”
सुमेरू ने सलाह दी – “दोस्त, कहां जा सकते हैं। बरसात ने सारे रास्ते बंद कर दिए हैं। अब तो भगवान ही इस मुसीबत से बचा सकते हैं।”
सुमेरू ने भी भगवान से मन-ही-मन धंधे की बात कही। इस तरह सोचते-सोचते वे सो गए। सुबह-सुबह उनकी झोंपड़ी के सामने एक साधु महाराज पधारे। दोनों ने उनका आदर किया। घर में जैसा भी रूखा-सूखा भोजन था, वह प्रेम से कराया। उसी दिन बरसात भी नहीं हुई। उन्हें बहुत-सा शहद भी मिला। दोनों ने साधु महाराज की कई दिनों तक सेवा की। एक दिन शाम के समय साधु ने उनसे कहा- “मैं तुम दोनों के आतिथ्य-सत्कार से प्रसन्न हूं। मांगो, तुम क्या मांगते हो?”
दोनों यह सुनकर बड़े खुश हुए। सुमेरू बोला -“महाराज हमें सोचने के लिए एक रात का समय दीजिए। प्रातः काल हम आपसे अपने-अपने मन की बात कहेंगे।”
साधु बोले-“ठीक है। सुबह तुम अपने नेत्र बंद करके जो भी मांगोगे, वही तुम्हें मिल जाएगा।”