भारत का प्राचीन इतिहास अति वैभवशाली रहा है। पूरे वैश्विक अर्थव्यवस्था में भारत का योगदान 25 प्रतिशत से ऊपर ही बना रहा है। खाद्य सामग्री, इस्पात, कपड़ा एवं चमड़ा आदि पदार्थ तो जैसे भारत ही पूरे विश्व को उपलब्ध कराता था। परंतु, 712 ईसवी में सिंध प्रांत के तत्कालीन राजा श्री दाहिर सेन जी को कपटपूर्ण तरीके से मोहम्मद बिन कासिम द्वारा युद्ध में परास्त कर शहीद करने के उपरांत आक्रांताओं को भारत में प्रवेश करने का मौका मिल गया। हालांकि उस समय आक्रांताओं का मूल उद्देश भारत को लूटना भर था क्योंकि उस समय तक भारत को ‘सोने की चिड़िया’ कहा जाता था। दरअसल, उस खंडकाल तक भारत से वस्तुओं का निर्यात पूरे विश्व को बहुत अधिक मात्रा में होता था इसके एवज में भारत को सोने की मुद्राओं में भुगतान अन्य देशों द्वारा किया जाता था। इससे भारत में स्वर्ण मुद्रा के भंडार जमा हो गए थे, इससे भारत को ‘सोने की चिड़िया’ कहा जाने लगा था। आक्रांतओं ने भारत में आकर देखा कि यहां के राजा तो एक दूसरे के दुश्मन बने हुए हैं एवं इनमें आपस में भाईचारे का नितांत अभाव है। आक्रांताओं ने राजाओं की आपसी दुश्मनी का फायदा उठाकर कुछ राज्यों पर धीरे धीरे अपनी सत्ता स्थापित करना शुरू किया। वरना, आक्रांतओं ने भारत में प्रवेश तो मुट्ठी भर लोगों के साथ ही किया था परंतु उन्हें कुछ राजाओं को अपने साथ मिलाने में सफलता मिली थी। कालांतर में इसी प्रकार की कार्यशैली अंग्रेजों ने भी अपनाई थी। अंग्रेज़ भी ईस्ट इंडिया कम्पनी नामक संस्था के माध्यम से व्यापार करने के उद्देश्य से भारत में आए थे। परंतु, उस खंडकाल में भी वे भारतीयों को ‘बांटों एवं राज करो’ की नीति का अनुपालन करते हुए आसानी से भारत पर अपना साम्राज्य स्थापित करने में सफल रहे थे। अंग्रेजो ने अर्थव्यवस्था के साथ साथ भारतीय सनातन संस्कृति को भी तहस नहस करने का प्रयास किया। कुछ हद्द तक इसमें उन्हें सफलता भी मिली थी क्योंकि भारतीय अपनी मूल सनातन संस्कृति को ही भूल बैठे थे।