माता शैलपुत्री
नवरात्रि के पहले दिन मां शैलपुत्री की पूजा की जाती है। मां शैलपुत्री का स्वरूप- दाहिने हाथ में त्रिशूल और बाएं हाथ में कमल का पुष्प है। शास्त्रों में मां शैलपुत्री चंद्रमा को प्रतिनिधित्व करती है। ज्योतिषियों का कहना है कि माता रानी के शैलपुत्री स्वरूप की पूजा करने से चंद्रमा के बुरे प्रभाव दूर हो जाते हैं। इनकी पूजा करने से घर में सुख-समृद्धि आती है। जब कोई मां शैलपुत्री की पूजा करता है, तो उसके जीवन में स्थिरता आती है और वह हमेशा अच्छे काम करता है।
कलश को नवरात्रि के पहले दिन स्थापित करने के बाद मां शैलपुत्री की पूजा की जाती है। सुबह ब्रह्म मुहूर्त में उठकर दैनिक कामों से छुट्टी लेकर स्नान-ध्यान करके मां शैलपुत्री की पूजा करें। इसके बाद, अपने पूजा घर को साफ करो। पूजा घर में एक चौकी पर गंगाजल डालें। इसके बाद एक चौकी पर लाल कपड़ा डालकर माता के सभी चित्रों को उस पर रखें।
अब मां शैलपुत्री की पूजा करने के लिए व्रत का संकल्प लें। माता रानी को अक्षत, धूप, प्रकाश, फूल, फल और मिठाई दें। घी का दीपक जलाकर माता की आरती करें। चंद्रमा की कुंडली में कोई दोष हो या वह कमजोर हो तो आप मां शैलपुत्री की पूजा करनी चाहिए। इससे बहुत लाभ होगा।
मां शैलपुत्री की कहानी: पुराणों में कहा जाता है कि मां शैलपुत्री का दूसरा नाम सती था। एक बार प्रजापति दक्ष ने एक यज्ञ करने का फैसला किया और सभी देवताओं को बुलाया, लेकिन भगवान शिव को नहीं। देवी सती को निमंत्रण नहीं मिलने पर गुस्सा आया। वह अपने पिता के यज्ञ में जाना चाहती थीं, लेकिन भगवान शिव ने उन्हें स्पष्ट रूप से मना किया। उनका कहना था कि कोई निमंत्रण नहीं आया तो वहां नहीं जाना चाहिए। लेकिन सती ने बार-बार आग्रह किया तो शिव को भी स्वीकार करना पड़ा।
सती को प्रजापति दक्ष के यज्ञ में पहुंचकर अपमान महसूस हुआ। उनसे सभी ने मुंह फेर लिया। उन्हें केवल उनकी माता ने प्यार से गले लगाया। वहीं उनकी बहने भोलेनाथ को बदनाम कर रही थीं। राजा दक्ष खुद माता सती का अपमान कर रहे थे। इस तरह का अपमान सहन न करने पर सती अग्नि में कूद गई और मर गई।
भगवान शिव क्रोधित हो गए और पूरे यज्ञ को ध्वस्त कर दिया। तब सती ने हिमालय में पार्वती का जन्म लिया। जहां उन्होंने शैलपुत्री नाम लिया। माना जाता है कि मां शैलपुत्री काशी की नगरी वाराणसी में रहती हैं।