वाह्य स्वरूप में नवरात्र के नौ दिन नौ देवियों की साधना, उपासना,आराधना और पूजा के दिन हैं । पर वास्तव में इन क्रियाओं के माध्यम से शरीर की समस्त कोशिकाओं को ऊर्जावान बनाकर अंतरिक्ष की एनर्जी से जुड़कर स्वयं को अधिक सामर्थ्यवान बनाने की प्रक्रिया है ।
संसार का प्रत्येक प्राणी सृष्टि की ऊर्जा से ही संचालित है । वह ऊर्जा अदृश्य है, अनंत है । लघुतम चींटी से विशाल हाथी तक सभी प्राणियों की एक श्वांस उसी से चलती है। यह बात हम इसी बात से समझ सकते हैं कि मौसम बदलते ही हमारे मन के विचार भी बदलने लगते हैं और शरीर की आवश्यकता भी। मौसम के अनुरूप ही अनाज,फल, फूल एवं सब्जी की फसल आती है । मौसम के साथ बीमारियाँ भी बदल जाती हैं। अब ये मौसम बदलता कौन है ? कौन संचालित कर रहा है इन चाँद और सूरज को, दिन और रात को । कौन संचालित कर रहा है जीवन और मरण की प्रक्रिया को । यह सृष्टि की वही अदृश्य, अनादि अनंत ऊर्जा है जिससे कोई मुक्त नहीं। आधुनिक विज्ञान ने इसे “यूनिवर्स की एनर्जी” नाम दिया और स्वीकारा है कि इस ऊर्जा को न नष्ट किया जा सकता है न पैदा किया जा सकता । वह रूप बदलती है और कभी इस पदार्थ के रूप में तो कभी उस पदार्थ के रूप में। प्राणियों की देह के रूप में भी वही ऊर्जा आकार लेती है । एक पदार्थ के नष्ट होने पर वह दूसरे पदार्थ का रूप ले लेती है । विज्ञान की इस परिभाषा को प्राचीन भारत के चिंतकों ने “परम् शक्ति” या “आदि शक्ति” कहा । जिसका अंश जीवात्मा है । यदि हम इस रहस्य को जान गये कि हमें श्वांस लेने में, हमारे रक्त संचार में, भोजन पाचन प्रक्रिया में अथवा काम करने की सामर्थ्य के केन्द्र में कोई ऊर्जा है । तो यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि हम उस ऊर्जा से कुछ अतिरिक्त शक्ति सामर्थ्य ले सकते हैं जिससे जीवन और सफल सक्षम बने ? क्या हम कुछ ऐसा कर सकते हैं कि जिससे न शरीर कमजोर हो और मन-बुद्धि हो। इस प्रश्न का समाधान और इस आवश्यकता की पूर्ति नवरात्र के आयोजन विधान में है । जो बदलते मौसम के प्रभाव के मन बुद्धि और शरीर पर पड़ने वाले प्रभाव का अध्ययन करके निर्धारित किये गये । ताकि मनुष्य की आंतरिक ऊर्जा, सृष्टि की अनंत ऊर्जा से अतिरिक्त शक्ति ले सके । व्यक्ति में दो मस्तिष्क होते हैं। एक चेतन (काॅन्शस) और दूसरा अवचेतन (सबकॅन्शस)। हमारा अवचेतन मष्तिष्क सृष्टि की अनंत ऊर्जा से जुड़ा होता है । जबकि चेतन मस्तिष्क संसार से । चेतन मस्तिष्क से सभी काम करते हैं उसकी क्षमता केवल पन्द्रह प्रतिशत ही है । जबकि अवचेतन की सामर्थ्य 85% है । सुसुप्त अवस्था में तो दोनों का संपर्क जुड़ता है । पर यदि जाग्रत अवस्था में चेतन मस्तिष्क अपने अवचेतन से शक्ति लेने की क्षमता प्राप्त कर ले तो उसे वह अनंत ऊर्जा से भी संपन्न हो सकता है । प्राचीनकाल में ऋषियों की वचन शक्ति अवचेतन की इसी ऊर्जा के कारण रही है । नवरात्र में पूजा साधना विधि जन सामान्य को अवचेतन की इसी शक्ति को सम्पन्न करने का प्रयास है । इससे आरोग्य तो प्राप्त होगा ही साथ ही अलौकिक ऊर्जा की संपन्नता भी बढ़ती है । मौसम के परिवर्तन के अनुरूप वर्ष को कुछ छै ऋतुओं में बाँटा गया है । चारों नवरात्र ऋतुओं के संधिकाल में आते हैं। ताकि शरीर ऋतु परिवर्तन के नकारात्मक प्रभाव से बचाने के लिये अतिरिक्त शक्ति प्राप्त हो । संयोग से ऋतुओं के संधिकाल की यह अवधि सृष्टि के पाँचों तत्वों के संतुलन की अवधि होती है । अतिरिक्त क्षमता अर्जित करने के लिये पाँचों तत्वों का संतुलन में संतुलन आवश्यक होता है । असंतुलन की स्थिति में उस तत्व से संबंधित तो प्रगति तीव्र होती है जिसका अनुपात अधिक होता है पर जिन तत्वों की गति कम रहती है वे क्षीण होनै लगते हैं जिससे असंतुलन होता है । यह असंतुलन ही बीमारी लाता है । शरीर की बीमारी भी और मन की बीमारी भी । शरीर रुग्ण होने लगता है और मन भटकने लगता है । शरीर के आंतरिक तत्वों और कोशिकाओं के संतुलित विकास से ही व्यक्ति स्वस्थ्य और सामर्थ्यवान रहता है । प्राणीदेह की कोशिकाओं और तत्वों के विकास एवं उनके ह्रास की अपनी प्रक्रिया है । देह की इस आंतरिक विकास प्रक्रिया को अतिरिक्त ऊर्जा संपन्न बनाने के लिये ही है नवरात्र में यह साधना सिद्धांत । नवरात्र की दिनचर्या चित्त को शाँत करती है और प्राण शक्ति को इस योग्य बनाती है कि व्यक्ति सृष्टि की अनंत ऊर्जा से जुड़ सके । इसीलिए नवरात्र में यम, नियम, संयम, आहार और प्राणायाम पर जोर दिया गया है ।
लेखक – रमेश शर्मा