ऐसा माना जाता है कि महेंद्र सम्राट अशोक का पुत्र था | कोई-कोई इतिहासकार इसका खंडन भी करते हैं | अस्तु | महेंद्र विद्रोही हो गया था | वह अधिकार और एश्वर्य में इतना उन्मत्त हो गया था कि उसे धर्म राज्य के सिद्धांतों का तनिक भी ध्यान नहीं रह गया था | दिन दोपहर प्रजा पर मनमाना अत्याचार करना उसका तथा उसके सैनिकों और आश्रित अधिकारियों का कार्यक्रम हो चला था | ऐसा लगता था कि प्रजा उसके विरुद्ध ही विद्रोह करने वाली है |
यह सारा समाचार महामंत्री राधवागुप्त ने सम्राट अशोक के धर्म सिंहासन के सम्मुख नत मस्तक होकर निवेदन किया था |
यह समाचार सुनकर राजसभा में उपस्थित मंत्रिगन तथा अन्य सभासद विस्मित हो उठे | राजभवन में सन्नाटा छा गया | सम्राट के नेत्र क्रोध से लाल हो गये थे | अहिंसक सम्राट सबकुछ सह सकता था, पर प्रजा के अहित में तल्लीन रहने वालों को दंड देने में वह कभी आगा-पीछा नहीं करता था | महेंद्र का यह महान अपराध था | सम्राट के आदेश से महेंद्र को राजसभा में उपस्थित किया गया | वह अपराधी कक्ष में खड़ा हो गया |
सम्राट ने कहा –“ मुझे तुमसे इस प्रकार के कुत्सित आचरण कि अपेक्षा नहीं थी | तुमने सम्राट चन्द्रगुप्त के राज्य सिंहासन को लांछित किया है | जानते हो इस अपराध का दंड ? जानते हो प्रजा की शांति को भंग का परिणाम ?”
“मृत्यु…… मेरा आचरण वास्तव में प्रजा के लिए अहितकर हो चला था देव ! किन्तु मृत्यु दंड देने से पहले सात दिन के अवकाश की याचना करता हूँ | यह आपके राजकुमार की याचना नहीं पाटलिपुत्र के एक अपराधी नागरिक की याचना है |” महेंद्र ने कहा |
छठे दिन कारागार के अधिकारी ने महेंद्र को स्मरण कराते हुए एक बार कहा- “अपराधी! आज छटा दिन है | कल तुम्हारे समस्त राग रंग समाप्त हो जायेंगे |
महेंद्र उसके कथन को सुनकर अंधकारपूर्ण कालकोठरी की दीवार की ओर देखने लगा | एक दरार से उसने भगवती गंगा की धवलिमा का दर्शन किया, उस पर अस्तायमान सूर्य की लालिमा बिखर रही थी | वह झरोखे के समीप आ गया और सांध्य शांति में उसने अद्भुत प्रकाश देखा |
“मुझको सत्य कि ज्योति प्राप्त हो गयी है | मैंने मृत्यु को जीत लिया है |” यह कहता हुआ वह आनंद से नाच उठा |
उन सात दिनों में महेंद्र का काया पलट हो गया था | उसे बोध हो गया था | सम्राट को भी इसकी सूचना मिल गयी थी | वे कारागार में उसकी कोठरी में गए |
“तुम अब वास्तव में मुक्त हो गये महेंद्र! “ सम्राट अशोक उसकी बातों से प्रसन्न थे | वे अंतिम विदा देने आये थे | सूर्य अस्त हो गया | प्रहरी ने एक टिमटिमाता दीपक सोपान पर रखकर भारत सम्राट का अभिवादन किया | महेंद्र बोला-“हाँ, मुझे अमरता मिल गयी है | सम्यक सम्बोधि की मुझे प्राप्ति हो गयी है | मैंने धर्म ज्योति देखी है |” यह कहकर वह सम्राट के चरणों में गिर गया | “पाटलिपुत्र का राजप्रासाद प्रतीक्षा कर रहा है महेंद्र! “ सम्राट अशोक ने उसे मुक्ति सन्देश सुनाया |
“नहीं सम्राट ! अब तो पहाड़, वन, निर्जन स्थान ही मेरे आश्रम हैं | मैं धर्म की ज्योति से जनता को समुत्तेजित करूंगा | यह प्रजा के कल्याण का मार्ग है |” वह कारागार से निकलकर पहाड़ की ओर चला गया |
“तुम धन्य हो श्रमण |” सम्राट अशोक सादर नतमस्तक था | गौरतलब है कि महेंद्र ने बाद में श्रीलंका सहित एशिया के विभिन्न देशों में धर्मं का प्रचार किया और अपना पूरा जीवन ही भ्रमण करते हुए बिताया |